"डिजिटल इंडिया" का अगुवा रिलायंस -"जियो" बना
"डिजिटल इंडिया" का अगुवा रिलायंस -"जियो" बना, जबकि मौका बीएसएनएल / एमटीएनएल के पास पूरा था...!
कैशलेस इकोनॉमी का अवतार एनपीसीआई के "रुपए" को बनना चाहिए था... लेकिन बाज़ी सीधे-सीधे "पे-टीएम" के हाथ लगने दी गई...!
फ्राँस के रफेल फ़ाइटर जेट का भारतीय पार्टनर हिंदुस्तान एरोनौटिक्स लिमिटेड को होना चाहिए... लेकिन ऑर्डर मिला रिलायंस - "पिपावा डिफेंस"...!
भारतीय रेल को डीज़ल सप्लाई का ठेका इंडियन ऑइल कार्पोरेशन को मिलना चाहिए था लेकिन मिला रिलायंस पेट्रोकेमिकल्स को..!
ऑस्ट्रेलिया की खानों के टेंडर में सरकार चाहती तो "एमएमटीसी" की बैंक गारंटी एसबीआई के जरिये दे सकती थी... लेकिन मिला अडानी ग्रुप को...!
सरकारी संस्थानों को जान-बूझकर प्राइवेट कंपनियों का पिछलग्गू बनाकर किसे फ़ायदा पहुँचाया जा रहा है...?
अगर फ़िस्क़ल और मॉनेटरी पाॅलिसीज़ में चेंजेज़ आ ही रहे हैं, तो इसका मुनाफ़ा सरकारी उपक्रमों को मिलने के बजाय निजी हाथों में क्यों दे रहे रहे हैं... ?
सुनिए, राजनीति और राष्ट्रहित कभी एक नहीं हो सकते... देशप्रेम और किसी व्यक्ति-विशेष का चारित्रिक पूजन करने में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है.. इस फ़र्क़ को समझना ज़रूरी है और असलियत के धरातल में रहना उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है...
अंधभक्ति और जी-हुज़ूरी करना इसलिए भी ग़लत होता है क्योंकि वो आपसे आपका सवाल पूछने का अधिकार छीन लेता है...
गलतियाँ सबसे हो सकतीं हैं, होती भी हैं, क्योंकि भगवान यहाँ न कोई है, न हो सकता है, लेकिन तर्कसंगत प्रश्न पूछने की हिम्मत तो दिखाओे मित्रों
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