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दावत ए ईमान

मैं मुगालता के तौर पर नहीं अर्ज कर रहा हूं बल्कि तारीक इसकी गवाह है कि जब उम्मत दावते इलल्लाह छोड देगी तो सबसे पहली जो मुसलमानों को कमजोरी पैदा होगी , वह यह कि अपने दीन को हल्का समझने और अपने दीन को दूनिया के बदले बेच देगी, यह सिर्फ दावत के छोडने का नतीजा होता है, कि जब उम्मत इज्तिमाई तौर पर दावते इलल्लाह को छोड देती है तो ऐसा होता है इसलिये यह बात भी हमें समझनी चाहिये कि दावते इलल्लाह उम्मत का इज्तिमाई फरीजा है, जिस तरह नमाज इज्तिमाई फरीजा है, यह इंफिरादी फरीजा नहीं है। यह  वह दावत है जो इस उम्मत के जिम्मे फर्जे ऐन है, फर्जे किफाया नहीं है। मेंरी यह बात कहना आपको अजीब सा लग रहा होगा, क्योंकि जहनों में यह बात बैठी हुई है कि यह तबलीगी जमाअत है जो उम्मत की इस्लाह का काम कर रही है, पर ऐसा नहीं है। इस काम में लोगों का इज्तिमाई तौर पर शरीक न होना, और इस काम को न करना इसकी बुन्यादी वजह यह है कि उम्मत इस काम को फर्जे किफाया समझती है कि भलाई का हुक्म करना और बुराई से रोकना , बेशक अच्छा काम है, अगर इसे एक जमाअत कर ले तो बाकी की तरफ से जिम्मेदारी अदा हो जाती है। लेकिन ऐसा नहीं है, बल्की दावत फर